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Saturday, July 26, 2008

विदेह 01 अप्रैल 2008 वर्ष 1 मास 4 अंक 7 9. बालानां कृते एकाङ्की अपाला आत्रेयी (आगाँ)

9. बालानां कृते एकाङ्की
अपाला आत्रेयी
पात्र: अपाला: ऋगवैदिक ऋचाक लेखिका अत्रि: अपालाक पिता
वैद्य 1,2,3: कृशाश्व: अपालाक पति।
वेषभूषा
उत्तरीय वस्त्र (पुरुष), वल्कल, जूहीक माला(अपालाक केशमे), दण्ड।
मंच सज्जा
सहकार-कुञ्ज(आमक गाछी), वेदी, हविर्गन्ध, रथक छिद्र, युगक छिद्र, सोझाँमे साही, गोहि आ’ गिरग़िट।




दृश्य पाँच
(अपालाक पतिगृह।वृद्ध माता-पिता बैसल छथिन्ह आ’ अपाला घरक काजमे लागल छथि।)
अपाला: प्रिय कृशाश्व।एतेक दिन बीति गेल। पतिगृहमे हम कोनो नियंत्रणक अनुभव नहि कएलहुँ। हमरा प्रति अहाँक कोमल प्रेम सतत् विद्यमान रहल। मुदा श्वेत श्वित्रक जे दाग हमरा पर ज्वलन्त सत्ताक रूपमे अछि, कदाचित् वैह किछु दिनसँ अहाँक हृदयमे हमरा प्रति उदासीनताक रूपमे परिणत भेल अछि। कृशाश्व: हमर उदासीनता अपाला? अपाला: हँ कृशाश्व। हम देखि रहल छी ई परिवर्त्तन। की एकर कारण हमर त्वगदोषमे अंतर्निहित अछि? कृशाश्व: हे अपाला। हमरा भीतर एकटा संघर्ष चलि रहल अछि। ई संघर्ष अछि प्रेम आ’ वासनाक। प्रेम कहैत अछि, जे अपाला ब्रह्मवादिनी छथि, दिव्य नारी छथि। मुदा वासना कहैत अछि, जे अपालाक शरीरक त्वगदोष नेत्रमे रूपसँ वैराग्यक कारण बनि गेल अछि। अपाला: पुरुषक हाथसँ स्त्रीक ई भर्त्सना। कामनासँ कलुषित पुरुष द्वारा नारीक हृदय-पुष्पकेँ थकूचब छी ई। हम वेदक अध्ययन कएने छी। चन्द्रमाक प्रकाशक बीचमे ओकर दाग नुका जाइत अछि, मुदा हमर ई श्वेत श्वित्र दाग हमर विशाल गुणराशिक बीचमे नहि मेटायल। (कृशाश्व स्तब्ध भय जाइत छथि, मुदा किछु बजैत नहि छथि।) अपाला: सबल पुरुषक सोँझा हम अपन हारि मानैत, अपन पिताक तपोवन जा रहल छी, कृशाश्व।
दृश्य 6
(अपाला प्रातः कालमे समिधासँ अग्निकुण्डमे होम करैत इन्द्रक पूजा आ’ जपमे लागि गेल छथि। कुशासन पर बैसलि छथि।)
अपाला: धारक लग सोम भेटल, ओकरा घर आनल आ’ कहल जे हम एकरा थकुचब इंद्रक हेतु, शक्रक हेतु।गृह गृह घुमैत आ’ सभटा देखैत, छोट खुट्टीक ई सोम पीबू,दाँतसँ थकुचल, अन्न आ’ दहीक संग खेनाइमे प्रशंसा गीत सुनैत। हम सभ अहाँकेँ नीक जेकाँ जनबाक हेतु अवैकल्पिक रूपसँ लागल छी, मुदा क्यो गोटे अहाँकेँ प्राप्त नहि क’ सकल छी। हे चन्द्र, अहाँ आस्ते-आस्ते आ’ निरन्तर ठोपे-ठोपे इन्द्रमे प्रवाहित होऊ। की ओ’ हमरा लोकनिक सहायता नहि करताह, हमरा लोकनिक हेतु कार्य नहि करताह। की ओ’ हमरा लोकनिकेँ धनीक नहि बनओताह? की हम अपन राजासँ शत्रुताक बाद आब अपना सभकेँ इन्द्रसँ मिला लिय’। हे इन्द्र अहाँ तीन ठाम उत्पन्न करू। हमरा पिताक मस्तक पर, हुनकर खेतमे आ’ हमर उदर लग। एहि सभ फसिलकेँ ऊगय दियौक। अहाँ हमरा सभक खेतकेँ जोतलहुँ, हमर शरीरकेँ आ’ हमर पिताक मस्तककेँ सेहो। अपालाकेँ पवित्र कएल। इन्द्र! तीन बेर, एक बेर पहिया लागल गाड़ी, एक बेर चारि पहिया युक्त्त गाड़ीमे आ’ एक बेर दुनू बरदक कान्ह पर राखल युगक बीच। हे शतक्रतु! आ’ अपालाकेँ स्वच्छ कएल आ’ सूर्यसमान त्वचा देल। हे इन्द्र!

दृश्य 7 (महायज्ञक समाप्तिक पश्चात ब्रह्मोदयक दृश्य।)
अत्रि: एहि विशाल ऋत्विजगणक मध्य ऋकक मंत्रमे अपालाक ऋचाकेँ हम सम्मिलित कए सकैत छी, कारण ई स्वतः स्फुटित आ’ अभिमंत्रित अछि। अपालाक चर्मरोग एहिसँ छूटि गेल, एकर ई सद्यः प्रमाण अछि। अपाला एहि मंत्रक दृष्टा छथि। ऋषिगण: अत्रि, हमरा सभ सेहो एहि मंत्रक दर्शन कएल। अहो। सम्मिलित करबाक आ’ नहि करबाक तँ प्रश्ने नहि अछि। ई तँ आइसँ ऋकक भाग भेल। (एहि स्वीकृतिक बाद ब्रह्मोदय सभामे दोसर काज सभ प्रारम्भ भ’ जाइत अछि। कृशाश्व विचलित मोने अपालाक सोझाँ अबैत छथि।)
कृशाश्व: अपाला। हम दु:खित छी। अहाँक वियोगमे। अपाला: हे कृशाश्व। इन्द्रक देल ई त्वचा योगक परिणाम अछि। अहाँक उपेक्षा हमरा एहि योग्य बनेलक, मुदा आब एहि पर अहाँक कोनो अधिकार नहि।
(दुनू गोटे शनैः-शनैः मँचक दू दिशि सँ बहराए जाइत छथि।)
(पटाक्षेप)_

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