Pages

Monday, July 28, 2008

'विदेह' १ जुलाई २००८ ( वर्ष १ मास ७ अंक १३ )7.संस्कृत शिक्षा च मैथिली शिक्षा च

7.
संस्कृत शिक्षा च मैथिली शिक्षा च
(मैथिली भाषा जगज्जननी सीतायाः भाषा आसीत् - हनुमन्तः उक्तवान- मानुषीमिह संस्कृताम्)
(आगाँ)
-गजेन्द्र ठाकुर

वयम् इदानीम् एकं सुभाषितं श्रुण्मः

अमन्त्रमक्षरं नास्ति
नास्ति मूलमनौषधम्।
अयोग्यः पुरुषो नास्ति
योजकस्तत्र दुर्लभः।

वयं इदानीम् एकं सुभाषितं श्रुतवन्तः। तस्य अर्थः एवम् अस्ति।
वर्णमालायां बहूणि अक्षराणि सन्ति। तादृशम् एकम् अपि अक्षरं नास्ति मंत्राय उपयोगः न भवति इति। एवमेव प्रपंचे बहुमूलानि सन्ति। तादृशम् एकमपि मूलं नास्ति औषधाय योग्यं न इति। एवमेव प्रपंचे बहुजनाः सन्ति- ते सर्वे अयोग्याः न। यदि कश्चन् योजकः मिलति तर्हि ते सर्वे योग्याः भवितुम अर्हन्ति।

कथा

पूर्वं कलिंगदेशं अशोकमहाराजः पालयति स्म। एकदा सह मंत्रिणा सह विहारार्थं बहिर्गतवान् आसीत्। तत्र मार्गे काचित् बौद्ध भिक्षुः सह दृष्टवान्। सः भिक्षोः समीपं गतवान्। भक्तया तस्य पादारविन्दयोः शिरः स्थापयित्वा नमस्कारं कृतवान्। भिक्षुः आशीरवादं कृतवान्। परन्तु एतत् सर्वमपि तस्य मंत्री आश्चर्येण पश्यन् आसीत्। एतद् तस्मै न अरोचत्। सः महाराजं पृष्टवान्- भोः महाराज। भवान् एतस्य राजस्य चक्रवर्ती अस्ति। भवान् किमर्थम् तस्य पादारविन्दयोः शिरः स्थापितवान्। इति। तदा महाराजः किमपि न उक्तवान्। मौनं हसितवान्। काचन् दिनानि अतीतानि एकदा अशोकः मंत्रिणं उक्तवान्। भोः मंत्रिण। भवान् इदानीम् एव गत्वा एकस्य अजस्य एकस्य व्याघ्रस्य एकस्य मनुष्यस्य शिरः आनयतु। तदा मंत्री अरण्यं गतवान्। एकस्य व्याघ्रस्य शिरः आनीतवान्। मांस्वापणं गतवान। तत्र एकस्य अजस्य शिरः आनीतवान्। तथा एव स्मसानं गतवान्। तत्र एकः मनुष्यः मृतः आसीत्। तस्य शिरः अपि आनीतवान्- महाराजाय दत्तवान्। महाराजः उक्तवान्। भोः एतत् सर्वम् अपि भवान् नीत्वा विक्रीय आगच्छतु। मंत्री विपणीम् गतवान्। तत्र कश्चन् मांसभक्षकः अजस्य शिरः क्रीतवान्। अन्यः कश्चन् अलंकारप्रियः व्याघ्रस्य शिरः क्रीतवान्। परन्तु मनुष्यस्य शिरः कोपि न क्रीतवान्। अनन्तरं मंत्री निराशया महाराजस्य समीपम् आगत्य निवेदितवान्। महाराजः उक्तवान्- भवतु भवान् एतद् शिरः दानरूपेण ददातु। इति। पुनः मंत्री विपणीम् गतवान्। तत्र सर्वाण उक्तवान्- भोः एतद् शिरः दानरूपेण ददामि। स्वीकुर्वन्तु- स्वीकुर्वन्तु। परन्तु कोपि न स्वीकृतवान्। मंत्री आगत्य-महाराजं सर्वं निवेदितवान्। महाराजः उक्तवान्- इदानीं ज्ञातवान् खलु। यावत् जीवामः तावदेव मनुष्यस्य शरीरस्य महत्वं भवति। जीवाभावे मनुष्यशरीरं व्यर्थं भवति। तदा शिरसः अपि महत्वं न भवति। अतः जीवितकालेएव वयं यदि सज्जनानां श्रेष्ठानां पादारबिन्दयोः शिरः संस्थाप्य आशीर्वादं स्वीकुर्मः तर्हि जीवनं सार्थकं भवति। एतत् श्रुत्वा मंत्री समाहितः अभवत्।

कथायाः अर्थं ज्ञातवन्तः खलु।

सम्भाषणम्

स्वराज्यं जन्मसिद्ध अधिकारः- इति तिलकः उक्तवान्।
स्वराज्य जन्मसिद्ध अधिकार अछि- ई तिलक कहलन्हि।

एतदैव वाक्यं वयं परिवर्तनं कृत्वा वक्तुं शक्नुमः।

माता उक्तवती यत् एकाग्रतया पठतु।
माता कहलन्हि जे एकाग्रतासँ पढ़ू।

शिक्षकः उक्तवान् यत् द्वारं पिदधातु।
शिक्षक कहलन्हि जे द्वार सटा दिअ।

अहं वदामि यत् संस्कृतं पठतु।
हम बजैत छी जे संस्कृत पढ़ू।

सेवकं वदति यत् द्वीपं ज्वालयतु।
सेवक कहैत छथि जे दीप जड़ाऊ।

इदानीम् एकम् अभ्यासं कुर्मः।

वैद्यम् उक्तवान् यत् फलं खादतु।
वैद्य कहलन्हि जे फल खाऊ।
वैद्यम् उक्तवान् यत् सत्यं वद धर्मं चर।
वैद्य कहलन्हि जे सत्य बाजू धर्म पर चलू।

बालकः शालां गच्छति।
बालाक पाठशाला जाइत छथि।

अहमपि शालां गच्छामि।
हम सेहो पाठशाला जाइत छी।

अहं चायं पिबामि। अहमपि चायं पिबामि।
हम चाह पिबैत छी। हम सेहो चाह पिबैत छी।

रोगी चिकित्सालयं गच्छति। अहमपि चिकित्सालयं गच्छामि।
रोगी चिकित्सालय जाइत छथि। हम सेहो चिकित्सालय जाइत छी।

मम नाम गजेन्द्रः। अहं शिक्षकः/ युवकः/ देशभक्तः अस्मि।
अहं बुद्धिमान्/ क्रीडापटु/ ब्रह्म अस्मि।
हमर नाम गजेन्द्र छी। हम शिक्षक/ युवक/ देशभक्त छी।
हम बुद्धिमान/ क्रीडापटु/ ब्रह्म छी।
कृष्णफलके कतिचन् शब्दाः सन्ति।

अहं वैद्यः/ कृषकः/ चालकः/ गायिका/ वैज्ञानिकः/ धनिकः/ अध्यापकः/ अस्मि।
हम वैद्य/ कृषक/ चालक/ गायिका/ वैज्ञानिक/ धनिक/ अध्यापक छी।

भवान् शिक्षकः अस्ति। अहं शिक्षकः अस्मि।
अहाँ शिक्षक छी। हम शिक्षक छी।

अहं नायकः अस्मि। वयं नायकाः स्मः।
हम नायक छी। हम सभ नायक छी।

अहं देशभक्तः अस्मि। वयं देशभक्ताः स्मः।
हम देशभक्त छी। हम सभ देशभक्त छी।

अहं भारतीयः अस्मि। वयं भारतीयाः स्मः।
हम भारतीय छी। हम सभ भारतीय छी।

अहं गायकः अस्मि। वयं गायकाः स्मः।
हम गायक छी। हम सभ गायक छी।

अहं वैद्यः अस्मि। वयं वैद्याः स्मः।
हम वैद्य छी। हम सभा वैद्य छी।

वार्ता

-हरिओम्।
-हरिः ओम्। श्रीधरः खलु।
-आम्।
-अहं ललितकुमारः वदामि।
-अहो ललितकुमारः। कुतः वदति।
-अहं भोपालतः वदामि। भवान् इदानीं कुत्र अस्ति।
-अहं बेङ्गलूर नगरैव अस्मि।
-बेङ्लूरनगरे कुत्र अस्ति।
-गिरिनगरैव अस्मि।
-तन्नमा गृहैव अस्ति।
-गृहतः प्रस्थितवान्। मार्गे अस्मि।
-एवं भवन्तः सर्वे कथं सन्ति।
-वयं सर्वे कुशलिनः। भवन्तः।
-वयं सर्वे कुशलिनः स्मः।
-एवं कः विशेषः।
-विशेषः कोपि नास्ति। कुशल वार्तां ज्ञातमेव दूरभाषं कृतवान्। एवं धन्यवादः।
-नमोनमः।

चाकलेहः। चाकलेहम् इच्छन्ति।
चाकलेट। चाकलेट लेबाक इच्छा अछि।
आम्। इच्छामः।
हँ। इच्छा अछि।
अत्र का इच्छति। यदि चाकलेहम् इच्छति तर्हि अत्र आगच्छतु।
एतए की इच्छा अछि। जौँ चॉकलेट लेबाक इच्छा अछि तखन एतए आऊ।

यदि अहं तत्र आगच्छामि भवान् ददाति वा।
जौँ हम ओतए अबैत छी अहाँ देब की।

आम्। अवश्यं ददामि।
हँ। अवश्य देब।

धन्यवादः।
धन्यवाद।

स्वागतम्।
स्वागत अछि।

फलम् इच्छन्ति।
फलक इच्छा अछि?

आम्। इच्छामः।
हँ। इच्छा अछि।

कः फलम् इच्छति।
के फलक इच्छा करैत अछि।

अहम् इच्छामि।
हम इच्छा करैत छी।

यदि फलम् इच्छति तर्हि अत्र आगच्छतु।
जौँ फलक इच्छा अछि तखन एतए आऊ।

यदि अहम् अत्रैव भवामि तर्हि तत् फलं न ददाति वा।
जौँ हम एतहि रहैत छी तखन अहाँ फल नहि देब की?

न ददामि। यदि फलम् आवश्यकम् अत्र आगच्छतु।
नहि देब। जौँ फल आवश्यक अछि तखन एतए आऊ।

आगच्छामि।
अबैत छी।

स्वीकरोतु।
स्वीकार करू।

धन्यवादम्।
धन्यवाद।

स्वागतम्।
स्वागत अछि।

पिपासा अस्ति वा।
पियास लागल अछि की?

न पिपासा नास्ति।
नहि। पियास नहि लागल अछि।

अस्ति।
लागल अछि।

कस्य पिपासा अस्ति।
किनका पियास लागल छन्हि।

यदि पिपासा अस्ति तर्हि जलं पिबतु।
जौँ पियास लागल अछि तखन जल पीबू।

आगच्छतु। स्वीकरोतु।
आऊ। पीबू।

धन्यवादः।
धन्यवाद।

यदि व्याघ्रः आगच्छति तर्हि भवान् किं करोति।
जौँ बाघ आएत तँ अहाँ की करब।

यदि व्याघ्रः आगच्छति तर्हि अहं व्याघ्रं ताडयामि।
जौँ बाघ आएत तँ हम ओकरा मारब।

यदि व्याघ्रः आगच्छति तर्हि अहं तत्रैव उपविशामि।
जौँ बाघ आएत तँ हम ओतहि बैसल रहब।

यदि व्याघ्रः आगच्छति तर्हि अहं धावामि।
जौँ बाघ आएत तँ हम भागब।

यदि व्याघ्रः आगच्छति तर्हि अहं शवासनं करोमि।
जौँ बाघ आएत तँ हम शवासन करब।

भवान् किम करोति? भवती किम् करोति?
अहाँ की करब? अहाँ की करब?

यदि अहं विदेशं गच्छामि तर्हि अहं तत्र जनानां संस्कृतं पाठयामि।
जौँ हम विदेश जाएब तखन हम लोक सभकेँ संस्कृत पढ़ाएब।

यदि माता तर्जयति तर्हि अहं पितरम् आश्रयामि।
जौँ माता मारैत छथि तखन हम पिताक शरणमे जाइत छी।

भवन्तः तर्हि योजयन्ति।

यदि धनम् अस्ति तर्हि ददातु।
जौँ धन अछि तखन दिअ।

यदि वृष्टिः भवति तर्हि शस्यानि आरोपयतु।
जौँ बरखा होए तखन फसिल रोपू।

यदि परीक्षा आगच्छति तर्हि सम्यक पठति।
जखन परीक्षा अबैत अछि तखन नीक जेकाँ पढ़ैत अछि।

यदि जलम् अस्ति तर्हि स्नानं करोति।
जखन जल रहैत अछि तखन स्नान करैत छथि।

यदि प्रवासं करोमि तर्हि ज्ञानं सम्पादयामि।
जौँ प्रवास करब तखन ज्ञानक सम्पादन कए सकब।

यदि शान्तिम् इच्छामि तर्हि भगवदगीतां पठामि।
जखन शान्तिक इच्छा होइत अछि भगवदगीता पढ़ैत छी।

यदि ज्ञानम् इच्छति तर्हि वेदं पठतु।
जौँ ज्ञानक इच्छा अछि तखन वेद पढ़ू।

यदि देशसेवां करोति तर्हि संतोषः भवति।
जखन देशसेवा करैत छी तखन संतोष भेटैत अछि।

यदि उत्तमा लेखनी अस्ति तर्हि मम कृते ददातु।
जौँ उत्तम कलम अछि हमरा लेल दिअ।

यदि संस्कृतं पठति तर्हि आनन्दः भवति।
जखन संस्कृर पढ़ैत छी तखखन आनन्द पबैत छी।
(अनुवर्तते)
(c)२००८. सर्वाधिकार लेखकाधीन आ’ जतय लेखकक नाम नहि अछि ततय संपादकाधीन।

विदेह (पाक्षिक) संपादक- गजेन्द्र ठाकुर। एतय प्रकाशित रचना सभक कॉपीराइट लेखक लोकनिक लगमे रहतन्हि, मात्र एकर प्रथम प्रकाशनक/ आर्काइवक/ अंग्रेजी-संस्कृत अनुवादक ई-प्रकाशन/ आर्काइवक अधिकार एहि ई पत्रिकाकेँ छैक। रचनाकार अपन मौलिक आऽ अप्रकाशित रचना (जकर मौलिकताक संपूर्ण उत्तरदायित्व लेखक गणक मध्य छन्हि) ggajendra@yahoo.co.in आकि ggajendra@videha.co.in केँ मेल अटैचमेण्टक रूपमेँ .doc, .docx आ’ .txt फॉर्मेटमे पठा सकैत छथि। रचनाक संग रचनाकार अपन संक्षिप्त परिचय आ’ अपन स्कैन कएल गेल फोटो पठेताह, से आशा करैत छी। रचनाक अंतमे टाइप रहय, जे ई रचना मौलिक अछि, आऽ पहिल प्रकाशनक हेतु विदेह (पाक्षिक) ई पत्रिकाकेँ देल जा रहल अछि। मेल प्राप्त होयबाक बाद यथासंभव शीघ्र ( सात दिनक भीतर) एकर प्रकाशनक अंकक सूचना देल जायत। एहि ई पत्रिकाकेँ श्रीमति लक्ष्मी ठाकुर द्वारा मासक 1 आ’ 15 तिथिकेँ ई प्रकाशित कएल जाइत अछि।

No comments:

Post a Comment