जीवनक सार्थकता - कथा सागर - जितमोहन झा (जितू)
एक बेर महात्मा बुध्द अपन शिष्य आनंदक संग कतहु जाइत छलाह !
अचानक रस्ता मे हुनका बहुत जोर क प्यास लगलैन !
ओ आनंदसँ कहलखिन '
वत्स'
कतहुसँ कनेक जल आनू हमरा बड जोरक प्यास लागल अछि !
आनंद नदीक किनार पहुँचला,
एतबे मेs
एक बैलगाड़ी नदीसँ गुजरलनि जाहिसँ नदीक जल दुषित भ' गेलनि !
आनंद वापस लौट गेलाह !
बुध्दसँ कहलखिन "
गुरुदेव नदी सँs
जा हम जल भरितहुँ ताबे मs
एक बैलगाड़ी ओहि से गुजरल जाहिसँ नदीक जल पूरा दुषित भ' गेल !
हम कतहु आर जगह सँ जल आनबा केs
प्रयास करैत छी !"
मुदा महात्मा बुद्ध हुनका फेर ओही नदीक तट पर जाय लेल कहलखिन !
नदीक जल एखनो धरी साफ नञि भेल छलनि,
आनंद फेर लौट गेलाह !
गुरुदेव फेर हुनका ओही जगह भेजलखिन चारिम बेर आनंद जखन नदीक तट पर पहुँचलाह तँ नदीक जल शीशा के सामान चमकैत रहनि !
गंदगी के नामों निसान नञि रहनि !
ओ जखन जल भरिकेँ लौटलाह तँ गुरुदेव (
महात्मा बुद्ध)
हुनका कहलखिन, "
हमर सबहक जीवनक विचारकेँ बैलगाड़ी दिन -
प्रतिदिन दुषित करैत अछि !
आर हम सब भागयs
लागए छी !
यदि भागय के बजाय नदी केँ स्वच्छ होई केs
प्रतीक्षा करी तँ जीवन सार्थक भ' जाएत .....
nik lagal, ehi srinkhala ke aar badhau
ReplyDelete