जाति
उच्च जातिक बात सुनिते
आँखि मे किछु गड़ि रहल छै।
हम रहब चुपचाप तैयो
लोक अपने जड़ि रहल छै।
की केलहुँ हम कर्म अनुचित
जन्म भेटल उच्च कुल मे।
धैर्य स्व अभिमान भेटल
आत्मबल संतोष मन मे।
रक्त मे शुभ संस्कारक
बहि रहल अछि धार निर्मल।
प्रज्ज्वलित अछि भाल एखनहुँ
तेज सँ परिपूर्ण प्रतिपल।
कर्म मे विश्वास सदिखन
के हमर पुरषार्थ कीनत।
धर्म मे अछि आस्था ओ
के हमर अधिकार छीनत।
राजनीतिक स्वार्थ के ई
नीति आरक्षण उपज अछि।
योग्य जन छथि कात लागल
ज्ञानहीनक उच्च पद अछि।
अछि उचित नहि कर्म एखनहुँ
ज्ञान के पथ द्वेष बाँटब।
जाति के सीढ़ी बना क’
दान मे सम्मान बाँटब।
किरिण फुटतै फेर अपने
भोर के प्रतिबद्धता सँ।
हम रहब बढ़िते , अहाँ नहि
रोकि पायब दुष्टता सँ।
सतीश चन्द्र झा, राम जानकी नगर,मधुबनी
'भालसरिक गाछ' जे सन २००० सँ याहूसिटीजपर छल अखनो ५ जुलाई २००४ क पोस्ट'भालसरिक गाछ'- केर रूपमे इंटरनेटपर मैथिलीक प्राचीनतम उपस्थितिक रूपमे विद्यमान अछि जे विदेह- प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका धरि पहुँचल अछि,आ http://www.videha.co.in/पर ई प्रकाशित होइत अछि।
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Wednesday, September 23, 2009
Wednesday, September 2, 2009
कविता आ कनिया
कविता आ कनियाँ
जीवन अछि भ’ गेल छिन्न-भिन्न
सब मान प्रतिष्ठा धर्म गेल।
‘कविता’ आ ‘कनियाँ’ मघ्य आबि
छी ठाढ़ आइ दृगभ्रमित भेल।
छिटल किछु शब्दक गढ़ल अर्थ
कविता अछि अंतर के प्रकाश।
कनियाँ छथि स्नेहक पवन प्राण
जीवन के नव सुन्दर सुवास।
‘क’ सँ कविता, ‘क’ सँ कनियाँ
ह्रस्व ई लागल अछि दुनू के।
दुनू के मात्रा एक रंग अछि
बास हृदय मे दुनू के।
अंतर अछि तकराबाद बनल
अछि चाँद विन्दु कनियाँ उपर।
तैं चान जेंका छथि चढ़ल माथ
कविता अछि फेकल ताख उपर।
कविता पोथी फाटल साटल
कनियाँ नहि रहती बिना सजल।
कविता सँ कनियाँ के सब दिन
रहि गेलन्हि केहन विद्वेश बनल।
कविता कनियाँ मे भेल केना
सौतिनपन, झगरा एतेक डाह।
तै लागि जाइत छन्हि कनियाँ के
कविता सँ रौदक तेज धाह।
धरती अंबर सन बना लेब
ई मोन हृदय कतबो विशाल।
नहि समा सकत संगे-दुनू
क’ देत व्यथित क्षण हृदय भाल।
अछि अर्थ विराट एकर जग मे
शंकर के ई अछि ब्रह्म रूप।
ज्ञानी पंडित अछि चकित देखि
कविता कनियाँ के मूर्त रूप।
की करू ठाढ़ छी सोचि रहल
अछि हमरो जीवन मे दुविधा।
क’ देब त्याग कविता जखने
भेटत कनियाँ सँ सुख सुविध।
रखने छी कविता के पन्ना
कनियाँ सँ सबटा नुका- नुका।
माथक सिरहन्ना मे ठूसल
कविता किछु पुरना किछु नवका।
भेटल किछु तखने समाधन
छल जे भारी संकट विपदा।
कनियाँ पर सुन्दर नव कविता
किछु लीखि सुनाबी यदा-कदा।
लिखय लेल बैसि गेलहुँ तखने
बाहर कोनटा मे लगा घ्यान।
गृहणी सँ कविता छलै रूष्ट
नहि फुरा सकल किछु गीत गान।
बैसल रहि गएलहुँ समाधिस्थ
नहि दोसर पाँती उतरि सकल।
हे मृगनयनी, नभ चन्द्र मुखी
की करू हमर अछि कलम रुकल।
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