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Saturday, September 26, 2009

झालि- सुभाष चन्द्र यादव



दिन लुकझुक करैत छै। रामा धान काटि क’ सबेरे आबि गेलै। ओना बोझ खरिहान लगबैत-लगबैत राति भ’ जाइत छै। आइ ओ हरे रामकेँ खेतमे छोड़ि देलकै। धाप पर खूब मोटगर क’ पुआर बिछएलक। बरहका भैया सरजुग कहलकै त’ घूरमे करसी सेहो द’ देलकै। रामाकेँ आइ नहा नइं भेलै तैं एतेक अगते जरौन लाग’ लागलै। धाप आ पुआर जबदाह छै। पिन्हनामे डोरिया पैंट रहलासँ तरबा लोह भ’ गेलै आ जाँघ-हाथक रोइयाँ भुटकल छै। चद्दरि नइं छै। भानस हेबा धरि घूर तापैत अछि। राति क’ हरे राम, गंगबा, बरहका भैया, आ ओकरा लेल एकटा मोटिया छै। सब एक पतियानीसँ ओंघरा जाइत अछि, त’ माइ एकटा पटिया ऊपरोसँ द’ दैत छै।
बिन्दुआ आ सुनरा कतहुसँ आबि पुआर पर बैसैत छै। सरजुग कहैत छै-कोने, कोनेसँ रे...
-एह, अहिना घुरिते-फिरते की।-बिन्दुआ कहैत छै।
-घूरमे आगि दही ने रामा रे।-सुनरा आग्रहक स्वरमे कहैत छै।
रामा कोनो उत्तर नइं दैत छै, आ पुआर खड़रैत रहै छै।
-हइ इएह गंगबाकेँ कहक ने।-देबलरयना अबैत-अबैत कहैत छै।
-लाबि ने दही गंगबा रे।-रामा हाथ बारि गंगबा पर तमसाइत छै।
-लाबि ने दही तोंही। हमहीं टा देखल रहै छियौ, नइं?-गंगबा खूब जोरसँ चिकरैत अछि।
-भने अइ सालाकेँ खेनाइ काल्हि बन्न क’ देने छलै। किछु कहलक तँ काने-बात नइं देलक।-रामा फेर दमसाबैत छै।
-माल छै की?-देबलरयना सरजुगसँ पुछैत छै।
सरजुग बुझैत अछि जे माल ककरा कहैत छै-डेढ़ टाकाके लेलियै रहए। सबटा सठि गेलै। आब जेबी झाड़ैत छियौ। निकलि जाउ तँ निकलि जाउ।
-ओएह त’ छौ एकटा जट्टा।-बिन्दुआकेँ भरोस होइत छै। गंगबा आगि लाबि घूरमे दैत छै। देबलरयना फूकि क’ सुनगाबए लगैत अछि।
-सरजुग एकदम भकुआएल अछि।-बिन्दुआक एहि बात पर सभ सरजुगकेँ देखैत अछि, आ हो-हो क’ हँसि दैत अछि।
रामा हाथ-गोर धो क’ अबैत छै।-हे रे, हँट-रामा गंगबाकेँ घुसकाबैत घूर पँजेठि लेब’ चाहैत अछि। ओकर टाँग आ हाथसँ भाफ उड़ैत रहै छै।
-हमरा की केलकै, वीरपुरमे अड़तालीस टाकाके पटुआ खरीद आ छिआलीसेमे बेचि लेलकै आ अइ ठिन छै बाबन।-देबलरयना गुल पजारैत कहैत छै।
-रौ तोरी, से किऐ?-सुनराकेँ परौसरामक बेकुफी पर छगुनता होइत छै।
-से नइं बुझलहक? हम घोड़ा ल’ क’ चलि एलिऐ आ अइ ठिन हमरा अरजुन पकड़ि लेलकै बियाहमे। चारि दिन बरदा गेलिऐ। आ जा-जा ओत’ गेलिऐ ता तक बेच देने रहै। हम कहि देलिऐ-हम हिस्सा-तिस्सा नइं देबौ।
-बेसी खैनी नइं दहक। कड़ा भ’ जाइ छै।-बिन्दुआ सरजुगकेँ बरजैत छै।
-गाजा कड़े ठीक होइ छै।-सरजुग लटबैत कहैत छै।
-बाप रे, पिरथी जे कड़ा पीबैत छै! पीलहक ए ओकर लटाएल?-सुनरा अतीतमे भटकि जाइत अछि।
-भाइजी, दुसधटोलीमे जे एक दिन लरमाहा पिलिअ’ रहए! मरदे, कचहरीसँ चोटाएल घुरल रहिऐ, चारि चिलम फूकि देलिऐ। से कहै छियह तुरन्ते ल’ क’ उड़ि गेलै। सनजोगसँ ओइ दिन संगमे एकटा पचटकिया रहए। सोचलिऐ साला उड़ि जो। लगले-लागल चारि कप चाह ढारि देलिऐ। से कहै छियह घुमरा कात अबैत-अबैत लागए जे चित्त भ’ जाएब। आबि क’ सूति रहलिऐक। भाइ उठबए एलै जे टिशन पढ़ब’ नइं जेबही? कहलिऐ, आइ नइं जेबै। बड़ थाकि गेल छियौ।-बिन्दुआ कहैत रहै छै आ सभ सुनैत रहै अछि।
-एह उ दुसधटोलियो कमाल छै-सुनरा कहैत छै तँ सभ हँसि दैत छै।
-दुसधटोली! दुसधटोली के की बिजनेस छै से सुनलहक? मौगी-छौंड़ी सभ, दिन आ भिनसुरको क’ कोइला बिछैत छै। मरद सभ दिनमे गाजा बेचैमे रहत आ छौंड़ी सभ राति क’।
सभ एके बेर भभा क’ हँसि दैत छै। बिन्दुआ हँसीमे जोग देलाक बाद कहैत छै-एकदिन दुसधटोलियेमे रहिअ’ भाइजी, आकि ओनएसँ छिनरो भाइ दरोगा पहुँचि गेलह। सबकेँ सर्च करए लगलै। हमरा पुछलक तँ हम कहलिऐ जे हमरा रुपैया बाँकी है, सो ही माँगने आए हैं।-तब पुछलक जे कैसा रुपैया? कहलिऐ सरबेमे काम किया था।-तब हमरा नइं किछु कहलक। दुसधाकेँ कनिएँ टा पकड़लकै, से छिनरो भाइ पचास टाका चट सिन ल’ लेलकै।
-ओइमे एकेटा छौंड़ी नीक छै, की हौ बिन्दु?-सुनरा एक सोंट मारैत कहैत छै।
-हँ, उ गोरकी छौंड़ी। उ सैनियाँक सारि छिऐ।
चिलम तीन-चारि रौन चलैत छै।
-जट्टा बाला गाजामे निशाँ बड़ जल्दी चढ़ैत छै।
बिन्दुआ चिलम दैत कहै छै-हे लैह!
तँ देबलरयना कहैत छै-ई तँ कुबेरक खजाना भ’ गेलह।
-तह-सरजुग पुष्टि करैत छै। कने काल सभ दार्शनिक जकाँ भ’ जाइत अछि।
-आइ-काल्हि घूरे लोककेँ जान बचबै छै।
-त, घूर नइं रहए तँ लोक कठुआ क’ मरि जाए!
-ठार खसब अखनेसँ शुरू भ’ गेल छै। सगरे धुइयाँ जकाँ पसरल छै।
कुहेसक पछारी नुकाएल चिन्ता कुहेस फाड़ि क’ निकलैत छै-केना चलतै, आँइ बिन्दुआ?-सरजुग टूटल स्वरमे पुछैत छै।
-बिन्दुआकेँ की छै? केहन टीशन पढ़बै-ए।
-नइं हौ, आइ-काल्हि बड़ा मुसकिल छै। बाबू ओतएसँ लिखलकै, जेना-तेना परिवार चला। पढ़ौनीबला एक डेढ़ मोन धान तसिललिऐ। लोक सभ देबे ने करैत छै हौ।-बिन्दुआ कहैत छै।
-आइ पढ़बए जेबही की?-सरजुग पुछै छै।
-हँ, हँ।-बिन्दुआ तेजीमे कहैत छै।
-रबियोकेँ बन्दी नइं?
-रबि-तबि बूझैत छै ओ सभ?
ता ओनयसँ छेदी चैधरी अबैत छै। ओकर अगिला दू-तीन टा दाँत टूटल छै। दाढ़ीक नमहर-नमहर खुट्टी सभ कोना दनि लगैत छै। घूर लग बैसिते ओ देबलरयनासँ पुछैत छै-अच्छा बोल, बेचबिही घोड़ा तों?
-हाय रौ बा, बेचबै नइं? बेगरता छै तँ।
-अच्छा एक्के बेर निस्तुकी दाम बोल।
-हमहुँ एक्के बेर निट्ठाह दाम कहि दैत छियह, पचपन टाका।
-बहुत कहै छिही। सुन! घोड़ाकेँ भरि पीठ घा छौ, आ चलै छौ त’ लापट लगै छौ। लोगो देखत तँ हँसत। कहतै घोड़ा झालि बजबैत छै।
गंगबाकेँ सभसँ पहिने हँसी लागि जाइत छै। ओकरे संगे सभ ठहाका लगबैत अछि।
-हम लगा देलियौ पैंतीस टाका। हँटा। भ’ गेलौ।-छेदी दाम पटएबामे तेज छै।
-ओतेमे नइं हेतह।
-सुन, हमरा उ घोड़ा नइं बिकत। कोइ लै ले जल्दी तैयारे नइं हेतै। पैंतीस वाजिब कहलियौ-ए। सरजुग, घोड़ाकेँ भरि पीठ घा छै।
-हे, घोड़ाकेँ घा कत’सँ एलै। कनियें टा पपड़ी ओदरल छै। उ जे कहबहक कोनो तरका घा छिऐ से नइं छै।
-अच्छा घा चोखेलै-ए की ओतबे छै?
-एह, आब कहाँ छै। एक्के रत्ती रहि गेलै-ए।
-घोड़ा अलगसँ देखैमे नीक लगै छै, मगर चीज नइं छै। हमरा तों द’ देबें ने, आ नहिओ बिकत तँ बुझबै दुआरे पर छै।
-खूब बढ़िया चीज छै। हम तँ कहै छियह दू-अढ़ाइ मन धरि लादि दै छिऐ।
-अच्छा, दामक-दाममे द’ दही। कतेमे नेने रही? पैंतालीसमे? छेदी! पैंतालीस द’ दहक आ ल’ लैह।-सरजुग तसफिया क’ दैत छै।
-अच्छा, जे ई सभ कहि देलकौ से भ’ गेलौ। हमरा भोरेमे घोड़ा द’ दे। जिनिस लादि क’ ल’ जेबौ आ बेचि क’ टाका द’ देबौ।
-नइं, से नइं हेतह। टाका भोरे द’ दहक। हमरा ओतए जाइके नइं रहितिए त’ हम घोड़ा बेचितिऐ कथी ले।-देबलरयनाकेँ शंका होइत छै जे ओ जल्दी टाका नइं देत।
-त तब कोना हेतै?
-सुनह, तों हमरा पहिने कहने रहित’ ने, तँ हम टाका पनरहो दिन छोड़ि देतिअ’। तों हमरा हटिया करए दैह आ ताबै टाकाक कोनो बनोबस करह।
-अच्छा तों काल्हि हटिया अबै छ’ ने?
-हँ-हँ, काल्हि हटिया नै करबै तँ काम चलतै?
-अच्छा तों हटिए पर आ।-छेदी कहैत चलि जाइत छै।
बात फरिछेलै नइं, से बिन्दुआ, सुनरा आ सरजुगकेँ बोझ-सन बुझाइत रहलै। घूर पझाएल जाइत छै। करसीमे खाली माँटिए छै। तरका गोइठामे एखन नइं धेलकै-ए।
-भूख लागि गेलै। कने मुरही-तुरही रहितै, नइं हौ भाइ जी?-बिन्दुआ कहैत छै।
-गाँजा पीने छहक तैं बुझाइ छ’। आन दिन बेरहट नइं खाइत रहक तइयो बुझाइत रह’ भूख?
-हँ, से ठीके कहै छहक।
बिन्दुआ उठि जाइत छै। सरजुग पुछैत छै-चलि देलें। बन्दी नइं?
-जाह, खरहू सब लग तोहूँ झालि बजबिहह।-गंगबा चैल करैत छै।

Wednesday, July 8, 2009

समीक्षा श्रृंखला 9- सुभाष चन्द्र यादवक कथा संग्रह बनैत बिगड़ैत पर डॉ कैलाश कुमार मिश्र

श्री सुभाषचन्द्र यादव केर कथा संकलन आद्योपान्त पढ़लहुँ। लेखक महोदय अपन भावनाकेँ वेवाक रूपेँ प्रस्तुत कएने छथि। कथा पढ़ब तँ लागत जे केना एकटा निम्न-मध्यम-वर्गीय परिवारमे बढ़ल-पलल एक पढ़ल-लिखल मनुक्ख अपन जीवनक घटना, अनुभव आ सम्वेदनाक वर्णन अक्षरश: कऽ रहल अछि। परम्पराक नीक चीजसँ लेखक अपना-आपकें जोड़ने छथि आ परम्पराक पाखण्डिक विद्रोह करबामे कख़नो नहि हिचकिचाइत छथि। गाम, घर, परम्प रा, परिवेश, खेत, खरिहान, गामघरक आपसी कलह, समन्वय, कोसी नदीक कहर, सौन्दर्य, यात्रा वृतान्त आदिक वर्णन सोहनगर लगैत अछि। सुभाषजीक कथा-संग्रहकेँ हमरा जनैत दू दृष्टिकोण सँ विवेचित कएल जा सकैत अछि:

(क) भाषा विन्यास आ शब्दावलीक दृष्टिकोण सँ ,
(ख) कथा-वस्तुक दृष्टिकोण सँ।

आब उपरलिखित दृष्टिकोण पर विचार करी:
भाषा विन्या स आ शब्दावलीक दृष्टिकोण सँ कथाकार बड्ड प्रशंसनीय कार्य केलन्हि अछि। प्रकाशक सेहो एहि तरहक रचनाकेँ प्रकाशित कए एक नीक परम्पहराक प्रारम्भी केलन्हि अछि।
मैथिली भाषाक सब सँ पैघ समस्या , हमरा एकटा मानवविज्ञानक छात्र हेबाक नाते, ई बुझना जाइत अछि जे जखन ई भाषा लिखल जाइत अछि तँ किछु तथाकथित संस्कृातनिष्ठज ब्राह्मण एवं कायस्थत लोकनिक हाथक खेलौना बनि रहि जाइत अछि। अनेरे संस्कृतक शब्द केँ घुसा-घुसा भाषाकेँ दुरूह बना देल जाइत अछि। छोट जाति, एवं सर्वहाराक शब्दब, विन्यांस, व्यनवहार आदि केँ नजरअंदाज कऽ देल जाइत छैक। सही अर्थमे भाषा माटिक सुगन्ध, आ लोक परम्पवरासँ दूर भऽ जाइत अछि। सर्वहारा वर्गसँ कटि जाइत अछि। एहिना स्थितिमे छोट जाति, स्त्रीोगण आदि अपना-आप केँ भाषाक तागसँ बान्हिल नहि बुझैत छथि। भाषाक प्रति लोकक सिनेह कम भऽ जाइत छन्हि। बाजब धरि तँ ठीक परन्तु् पढ़ब आ लिखब परमपरासँ ई लोकनि अपन नाता समाप्त। कऽ लैत छथि।
मैथिली भाषाक समस्या केवल जाति अथवा समुदाय मात्रसँ नहि छैक। विभिन्नभ सांस्कृनतिक एवं भौगोलिक क्षेत्रक हिसाबे सेहो लोक भाषाकेँ ऊँच-नीच बुझैत छथि। सौराठ (मधुबनी) एवं सौराठ गामक चारु दिशामे पाँच कोस धरिमे उच्चत वर्गक लोकक द्वारा प्रयुक्तं मैथिलीकेँ सर्वाधिक नीक मैथिली , पुन: समस्तीछपुर सँ कनीक दक्षिण दिस आगू गेलाक बाद प्रयुक्तश मैथिलीकेँ निम्नँ श्रेणीक मैथिली बुझल जाइत अछि। दक्षिणमे जे मैथिली बाजल जाइत अछि, तकरा पंचकोसिला लोकनि दछिनाहा , पूबमे व्युवहरित मैथिलीकेँ पुवहा एवं पच्छिम, विशेष रूपसँ सीतामढ़ीमे प्रयुक्त मैथिलीकेँ पछिमाहा भाषा कहि ओकर अपमान करैत छथि।
एहि सभ कारणसँ कुजरा मुसलमान, तेली, सूरी, यादब, बनिया, कोइरी, धानुख आदि अपना आपकेँ मैथिली भाषाक बाजय वला नहि बुझैत छथि। दक्षिण, पच्छिम केर लोककेँ एहन बुझाइ छनि जेना ई लोकनि भाषाक मुख्याधारासँ अलग-थलग होथि। लोकविद्या अथवा फॉकलोर एतेक सम्पयन्नोा होइतो एहि क्षेत्रमे बहुत नीक स्थाेन बनाबयमे मिथिला एखन धरि असमर्थ रहल अछि।
नामकरणक उदाहरण जे ली तँ बुझायत जेना ब्राह्मण एवं कायस्थ् लोकनि संस्कृथतनिष्ठउ नामक प्रयोग करबाक पूरा ठेका लऽ लेने छथि। जरवन कि पंजाबी भाषाक उदाहरण बहुत उल्टा अछि। पंजाबी भाषामे नाम आदि, लोक एवं सामान्यर जनमानस केर हिसाबसँ निर्धारित होइत अछि। गुरु ग्रन्थधसाहेबकेँ एखनहुँ धरि गुरग्रन्थ साहेब, कहल जाइत अछि। स्मररण आइयो सिमरन थीक। फॉकलोर जाग्रत छैक। एकर परिणाम ई होइत छैक जे की स्त्रीण, की पुरुष, की छोट, की पैघ सभ जातिक लोक अपना आपकेँ भाषा, संस्काषर आ संस्कृकतिसँ जुड़ल बुझैत अछि। सब भाषाकेँ अपन हृदयसँ सटेने रहैत अछि।
अतेक सम्प न्नह फॉकलोर रहितहुँ, मिथिलाक फॉकलोरपर किछु विशेष कार्य नहि भऽ सकल अछि। सुभाषजीक कथा-संग्रह एक उल्लेाखनीय कदम थीक। एक तँ सुभाष जी पंचकोसिया नहि छथि आ दोसर ओ ब्राह्मण अथवा कर्ण कायस्थ सेहो नहि छथि। से अपन परिवेशक प्रयुक्त शब्द , वाक्य , परम्प रा, नाम आदिक वेवाक वर्णन कयलन्हि अछि। किताबक सब पन्ना पढ़ि लेलाक बाद अपन ठेठ गाम, गामक परम्पिरा, लोक परिवेश इत्या दि स्मनरण होबय लागत। लोकमे प्रयुक्तप खांटी देसी नाम जेना कि मुनिया, कुसेसर, उपिया, बिहारी, बौकू, सिबननन, रामसरन, रघुनी, नट्टा, नथुनी, बैजनाथ, सकुन आदि पाठककेँ एकाएक गामक ठेठ परिवेशमे मानसिक रूपसँ लऽ जाइत अछि। भाषा सेहो अग्गबब देसी। कुनो बनाबटीपन नहि। जेना सुभाषजी क्षेत्रक लोक बजैत अछि, तहिना ई लिखलन्हि अछि।
एहि तरहक यथार्थवादी परम्पभराक प्रारम्भ, केलासँ मैथिली साहित्यछ सम्पान्ने हैत। वेराइटी बनतैक। पाठकक संख्याप बढ़त। अनेरे संस्कृमतनिष्ठ बनि जेबाक कारण मैथिलीक पाठकक संख्याप लगभग शून्यम जकाँ अछि। स्थिति ई अछि जे लेखक एवं कवि लोकनि स्वभयं किताब छपा मुफ्त बाँटैत छथि। तैयो कियोक पढ़यबला नहि। वेबवर्ल्ड क विकास हेमाक कारणेँ किछु प्रवासी एवं मिथिलासँ बाहर रहनिहार मैथिल आब आइ काल्हि किछु सामग्रीकेँ सर्फ कय देखि लैत छथि। हालांकि इहो लोकनि सब सामग्री मैथिलीमे लिखल पढ़ैत नहि छथि। हिनका सबमे अधिकाधिक लोक अपन कथ्य अंग्रेजीमे व्यखक्त करैत छथि।
सुभाषजी जकाँ अगर आरो लेखक, कवि इत्याेदि आगाँ आबथि तँ यथार्थवादी परम्पजरा समृद्ध हैत। मैथिलीमे नव-नव शब्दा वली विकसित हैत। सब क्षेत्र, सम्प्रीदाय, जाति, वर्गक लोक मैथिलीक संग सिनेह करताह। मैथिली पढ़बाक प्रति जाग्रत हेताह। कोसी, कमला, जीबछ, करेत, गंडक, बूढ़ी गंडक आ गंगाक बीच संगम हैत। मैथिली किछु विशेष केर हाथक खेलौनासँ ऊपर उठि सर्वहाराक भाषा बनत।
आब सुभाषजीक कथा-संग्रहक कथा-वस्तुो पर कनी विचार करब जरूरी। कथा-वस्तुाक दृष्टियें सेहो लेखक अपन परिवेशसँ बान्हरल छथि। कथा सभमे लेखककेँ परम्पसराक नीक तत्वक प्रति सिनेह, पाखण्डबक प्रति विद्रोह, एक निम्नल-मध्यकम वर्गक बेरोजगार शिक्षित युवक केर फ्रर्स्टेिशन, एक युवकक सुन्द र नायिकाक प्रति आकर्षण, कोसीक कहर, गाममे परिवर्तन केर प्रवाह, गामक समस्याँ, यात्रा-वृतान्तो, मोनक अन्तःवद्वन्द, सुन्दसरता आ सुन्दधरताक प्रति मृगतृष्णा आदिक मनोवैज्ञानिक आ सहज वर्णन भेटत।
‘‘बनैत बिगड़ैत’’ कथामे माए-बापक मनोदशा, जकर संतान बाहर रहैत छैक, नीक वर्णन कएल गेल छैक। कथाक मुख्य्पात्र माला टाँहि-टाहि करैत कौवाक आवाजसँ डरैत अछि। ओकरा हकार दैत उड़बै चाहैत छैक। लेकिन ‘‘टोकारा आ थपड़ी सँ नै उड़ै छै तऽ माला कार कौवा के सरापय लागै छै — “बज्जटर खसौ, भागबो ने करै छै”।
परदेसमे रहि रहल संतान सबहिक प्रति मालाक मनोदशा लेखक किछु ऐना लिखैत छथि:
कौका कखनियें सँ ने काँव-काँव के टाहि लगेने छै। कौवाक टाहि सँ मालाक कलेजा धक सिन उठै छै। संतान सब परदेस रहै छै। नै जानि ककरा की भेलैक! ने चिट्ठी-पतरी दै छै, ने कहियो खोज-पुछारि करै छै। कते दिन भऽ गेलै। कुशल समाचार लय जी औनाइत रहै छै। लेकिन ओकरा सब लेखे धन सन। माय-बाप मरलै की जीलै तै सँ कोनो मतलब नै।
“हे भगवान, तूही रच्छा करिहबु। हाह। हाह।”—
माला कौवा संगे मनक शंका आ बलाय भगाबय चाहै छै।”

आ मालाक बात पर हमरा जनैत लेखक सत्तोंक माध्य मसँ अपन विस्म य व्याक्तब करैत छथि। मायक मनोविज्ञानक तहमे जयबाक प्रयत्ने करैत छथि:
माला सब बेर अहिना करै छै। सत्तो लाख बुझेलक बात जाइते नै छै। कतेक मामला मे तऽ सत्तो टोकितो नहि छैक। कोय परदेस जाय लागल तऽ माला लोटा मे पानि भरि देहरी पर राखि देलक। जाय काल कोय छीक देलक तऽ गेनिहार केँ कनी काल रोकने रहल। अइ सब सँ माला केँ संतोख होइ छै, तै सन्तोंि नै टोकै छै। ओकरा होइ छै टोकला सँ की फैदा ? ई सब तऽ मालाक खूनमे मिल गेल छै। संस्काटर बनि गेल छै।
सन्तो्केँ छगुन्ताक होइ छै। यैह माला कहियो अपन बेटा–पुतौह आ पोती सँ तंग भऽ कऽ चाहैत रहै जे ओ सब कखैन ने चैल जाय । रटना लागल रहै जे मोटरी नीक, बच्चा नै नीक। सैह माला अखैन संतान खातिर कते चिंतित छै।”
अही तरहें अपन खिस्साब ‘कनियाँ-पुतरा’ मे लेखक ट्रेनमे ठाढि़ एक बारह बर्षक लड़की आ लड़कीक निश्छल व्यखवहारसँ आत्मविभोर भय, लड़की सँ एहन सम्बकन्ध़ बना लैत छथि जेना जो लड़कीक भाय अथवा पिता होथि। ट्रेनक व भीर भरल बोगीमे ठाढि़ लड़कीक छाती जखन कथाक सुत्रधारक हाथ सँ सटैत छैक तँ लड़कीक निर्विकार मुद्रासँ एना बुझना जाइत छैक जेना ‘ ऊ ककरो आन संगे नै, बाप-दादा या भाय-बहीन सँ सटल हो।’
लड़कीक भविष्यपर लेखक द्रवित होइत सूत्रधारक माध्य मसँ सोचय लगैत छथि : “ओकर जोबन फुइट रहल छै। ओकरा दिस ताकैत हम कल्पोना कऽ रहल छी। अइ लड़कीक अनमोल जोबनक की हेतै? सीता बनत की दरोपदी ? ओकरा के बचेतै ? हमरा राबन आ दुरजोधनक आशंका धेरने जा रहल ऐछ।”
‘ओ लड़की’ नामक कथामे सुभाष बाबू निम्न वर्गीय दब्बूडपनीक मनोदशाक वर्णन करैत छथि। जखन एक आधुनिका अपन हाथक ऐँठ पात्र नवीनकेँ थमाबय चाहैत छैक, तँ सूत्रधार बाजि उठैत अछि:
“सवाल खतम होइते नवीनक नजरि लड़कीक चेहरा सँ उतरि के ओकर हाथक कप पर चलि गेलै आ ओ अपमान सँ तिलमिला गेल। ओकरा भीतर क्रोध आ धृणाक धधरा उठलै। की ओ ओहि दुनूक अँइठ कप ल’ जायत ? लड़कीक नेत बुझिते ओ जवाब देलकै — ‘नो’। ओकर आवाज बहुत तेज आ कड़ा रहै आ मुँह लाल भ’ गेल रहै। ओकरा ओहि बातक खौंझ हुअए लगलै जे ओकर जवाब एहन गुलगुल आ पिलपिल किए भ’ गेलै। ओ कियैक नहिं कहि सकलै -हाउ डिड यू डेयर?’ तोहर ई मजाल ! मुदा ओ कहि नहिं सकलै। साइत निम्नवर्गीय दब्बूेपनी आ संस्काुर ओकरा रोकि लेलकै।”
- डॉo कैलाश कुमार मिश्र
(कैलाश जी इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्रमे स्कॉलर छथि आ कतेक प्रदेशमे मानवशास्त्रीय फील्डवर्कक क्रममे घूमल छथि। फॉक म्युजिक ऑफ मिथिलापर पी. एच.डी. छथि आ मिथिला चित्रकलापर हिनकर आलेख एहि विषयपर सभसँ नीक प्रबन्ध मानल जाइत अछि।)